बढ़ते तापमान और अनियमित वर्षा के बीच, उत्तराखंड के किसान गेहूं, धान और आलू जैसी पारंपरिक फसलों से दूर जा रहे हैं, जबकि दलहन और मसाले जैसे अधिक जलवायु-अनुकूल विकल्पों को चुन रहे हैं। एक नयी रिपोर्ट में यह खुलासा हुआ है।
जलवायु एवं ऊर्जा थिंक टैंक ‘क्लाइमेट ट्रेंड्स’ द्वारा किए गए अध्ययन में कहा गया है कि कभी उत्तराखंड की मुख्य फसल आलू थी लेकिन बुआई के रकबे और उपज दोनों में भारी कमी आई है।
अध्ययन के मुताबिक, पिछले पांच वर्षों में आलू की पैदावार में 70.82 प्रतिशत की गिरावट आई है, जो 2020-21 में 3,67,309 मीट्रिक टन से घटकर 2023-24 में केवल 1,07,150 मीट्रिक टन रह गई है।
इसके मुताबिक खेती का क्षेत्रफल भी 36.4 प्रतिशत घटकर 2020-21 में 26,867 हेक्टेयर से 2022-23 में 17,083 हेक्टेयर रह गया है।
यद्यपि भारत के कुल आलू उत्पादन में उत्तराखंड की हिस्सेदारी बहुत कम है, फिर भी यह सब्जी लंबे समय से राज्य में एक प्रमुख फसल रही है।
कृषि विज्ञान केंद्र, उधम सिंह नगर के वैज्ञानिक अनिल कुमार ने कहा, ‘‘जलवायु परिवर्तन एक महत्वपूर्ण कारक है। पहाड़ों में आलू पूरी तरह से वर्षा पर निर्भर है, और बारिश लगातार अनियमित होती जा रही है।’’
लोक चेतना मंच के अध्यक्ष जोगेंद्र बिष्ट ने कहा, ‘‘मिट्टी में नमी की कमी के कारण आलू की खेती प्रभावित हो रही है। जमीन शुष्क है, पानी को बनाए रखने की क्षमता कम है और उच्च तापमान के कारण वाष्पीकरण की दर बढ़ जाती है। इसके अलावा, किसानों को रात में खेतों पर हमला करने वाले जंगली सूअरों से भी जूझना पड़ रहा है, जो पौधों को खोदकर नष्ट कर देते हैं।’’
उन्होंने कहा कि गेहूं, धान और बाजरा जैसी पारंपरिक फसलों में भी गिरावट आई है, वहीं दालें और मक्का किसानों के लिए अधिक जलवायु-प्रतिरोधी विकल्प के रूप में उभर रहे हैं।
बिष्ट ने बताया कि चना और अरहर सहित दलहन की खेती के रकबे और उपज दोनों में वृद्धि देखी गई है, क्योंकि वे बदलती जलवायु के लिए बेहतर अनुकूल हैं।
उन्होंने बताया कि देसी दालें जैसे पहाड़ी तुअर, गहत और काली भट्ट लोकप्रिय हो रही हैं, क्योंकि इनमें पानी की आवश्यकता कम होती है और पोषक तत्क अधिक होते हैं।
कुमार कहते हैं, ‘‘वर्तमान में धान और गेहूं जैसी पारंपरिक फसलों से बागवानी फसलों की ओर धीरे-धीरे बदलाव हो रहा है।’’ उन्होंने बताया कि उत्तराखंड में मसालों की खेती भी जोर पकड़ रही है।
कुमार ने बताया कि हल्दी और मिर्च जैसी फसलें, गर्म, आर्द्र परिस्थितियों में पनपती हैं और इनकी खेती के रकबे और उपज दोनों में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है।
उन्होंने बताया कि पिछले एक दशक में हल्दी की खेती में 112 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि पैदावार में 122 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इसी तरह मिर्च की खेती में 35 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जबकि 2016 से 2022 के बीच पैदावार में 21 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
विशेषज्ञों का सुझाव है कि ये फसलें पारंपरिक फसलों की तुलना में क्षेत्र की बदलती जलवायु के लिए अधिक अनुकूल हैं। विभिन्न प्रकार की मिट्टी और अलग-अलग तापमान में पनपने की उनकी क्षमता उन्हें किसानों के लिए अधिक आकर्षक बनाती है।
राज्य में तिलहन की खेती, हालांकि अब भी सीमित रकबे में की जाती है, लेकिन इसमें भी वृद्धि हो रही है। सरसों-रेपसीड (लाही-सरसों-तोरिया) और सोयाबीन जैसी किस्मों का रकबा और उत्पादन बढ़ रहा है।
पिछले दशक में राज्य में औसत तापमान में प्रतिवर्ष 0.02 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि देखी गई है। मैदानी इलाकों की तुलना में ऊंचाई वाले इलाकों में जलवायु परिवर्तन अधिक अप्रत्याशित हो रहे हैं।
उत्तराखंड में वर्ष 2023 के दौरान 94 दिन प्रतिकूल मौसम रहा, जिससे कृषि भूमि को काफी नुकसान हुआ। इसकी वजह से 44,882 हेक्टेयर कृषि भूमि प्रभावित हुई।
विशेषज्ञों ने बताया कि जल संकट और अनियमित वर्षा अब पहाड़ों के किसानों के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक हैं। राज्य सरकार जलवायु-प्रतिरोधी फसलों की ओर भी कदम बढ़ा रही है। अरहर की सूखा-सहनशील किस्मों की शुरुआत इसी तरह का एक प्रयास है।